नयी पीढ़ी में कम ही लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि अंगरेजों के शासनकाल में ही कुछ स्वातंत्रयवीरों ने 1 दिसम्बर 1915 को भारत की पहली ‘आजाद हिंद सरकार’ का गठन कर अंगरेजों को सीधी चुनौती दी थी।
इस सरकार का गठन अफगानिस्तान के काबुल शहर में हुआ था। सरकार के मुखिया (राष्ट्रपति) थे सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी, हाथरस-मुरसान रियासत के राजा महेन्द्रप्रताप सिंह।
इस सरकार के पास कोई भूमि अथवा प्रशासनिक अधिकारवाला भारतीय क्षेत्र भले न हो, किंतु इस सरकार गठन का राजनीतिक महत्त्व था। इसे विश्व के 6 अन्य देशों ने विधिवत राजनीतिक मान्यता दी थी। सरकार के पास अपनी सेना थी।
बीसवींसदी के दूसरे दशक में अंगरेजों से होनेवाले विभिन्न देशों के युद्धों (इन्हें ही बाद में प्रथम विश्वयुद्ध कहा गया) को अनेक भारतीय क्रांतिकारी भारत के लिए ‘अवसर’ के रूप में देख रहे थे। उनका विश्वास था कि इन युद्धों के कारण दबाव में आये अंगरेजों को किसी उनके विरोधी देश की सहायता से एक करारा धक्का दिया जाय तो वे भारत छोड़ने पर विवश किये जा सकते हैं।
अपने इसी दृष्टिकोण को फलीभूत करने के लिए अपने भारतीय सहयोगियों (प्रमुखतः राजर्षि पुरूषोत्तमदास टंडन) से परामर्श कर 17 अगस्त 1914 को राजा महेन्द्रप्रताप सिंह अंगरेजों के तब के सबसे बड़े शत्रु अफगानिस्तान होते हुए फरवरी 1915 में जर्मनी की राजधानी बर्लिन जा पहंचे तथा वहां के सम्राट कैसर से भेंट कर अपनी योजना उनके समक्ष रखी।
जर्मन सरकार की दृष्टि में यह योजना कितनी कारगर थी, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सम्राट कैसर ने राजा महेन्द्रप्रताप को 50 हजार भारतीयों की सेना तैयार कर सोंपने का आश्वासन दिया। साथ ही अफगानिस्तान के बादशाह हबीबुल्लाह, तुर्की बादशाह, नेपाल नरेश सहित 26 भारतीय नरेशों को पत्र लिख राजा साहब की योजना में सहयोग देने की अपील की। आचार्य कृपलानी सम्राट कैसर व भारतीय नरेशों के मध्य हुए इस पत्र-व्यवहार के मध्यस्थ थे।
अंततः अफगानिस्तान बादशाह के सक्रिय सहयोग के आश्वासन पर रूसी सेनाओं द्वारा लगाए गये अनेक अवरोधों को पार कर 2 सितम्बर 1915 को राजा महेन्द्रप्रतापसिंह काबुल पहुंच गये। यहां उन्होंने काबुल के शाह हबीबुल्ला खां से 6 सितम्बर को भेंट कर, उनकी सरकार से 50 हजार भारतीयों की सेना के निर्माण के लिए अपेक्षित आर्थिक सहयोग व शस्त्र आपूर्ति का आश्वासन ले काबुल के बाग फरजाना में 1 दिसम्बर 1915 को भारत की प्रथम ‘आजाद हिंद सरकार’ का गठन किया।
राजा महेन्द्रप्रताप सिंह इस सरकार के राष्ट्रपति बने। जबकि बरकतुल्लाह खां प्रधानमंत्री तथा ओबेतुल्ला सिंधी गृहमंत्री बने। इस सरकार के अन्य पदाधिकारी थे- विदेशमंत्री डा. चंपकरमन पिल्लई तथा बिना विभाग के मंत्री के रूप में डा. मथुरा सिंह।
वायदेे अनुसार अफगान सरकार ने इन्हें 15 हजार सैनिकों की सुसज्जित सेना प्रदान की। साथ ही जर्मनी, जापान सहित उसके मित्र विश्व के 6 राष्ट्रों ने इसे विधिवत राजनीतिक मान्यता दी।
वैश्विक इतिहास में घटित इस बड़ी घटना की अंगरेजों पर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी, इसे सहज ही समझा जा सकता है। खिसियाए भारतीय अंगरेजी प्रशासन ने राजा साहब को सर्वोच्च राजद्रोही घोषित करने के साथ अनेक बार उनकी हत्या के प्रयास कराए। साथ ही इस सरकार को मान्यता देनेवाले अफगानिस्तान सहित सभी देशों पर राजनीतिक व कूटनीतिक दबाव बनाए।
दुर्भाग्यवश अंगरेजी कूटनीतिक षड्यन्त्र के चलते अफगान बादशाह हबीबुल्ला की हत्या कर दी गयी। नया शाह नसीरूल्लाह ने अंगरेजी दबाव में इस योजना से अपने हाथ खींच लिए। हालांकि जल्द ही नसीरूल्लाह को अपदस्थ कर अमानुल्लाह के शाह बन जाने तथा नये शाह के योजना पर आस्थावान होने से योजना पर कोई बड़ा प्रभाव न पड़ा।
योजना के अनुसार राजा साहब की सेना को अफगानिस्तान के सहयोग से अंगरेजों की चैकियों पर आक्रमण करना था। जबकि जर्मनी सेनाओं को इस युद्धरत सेना की सुरक्षा व अन्य सहायता करनी थी।
राजा महेन्द्रप्रताप ने शाह अमानुल्लाह से परामर्श कर 4 मई 1919 को अंगरेजों की सैन्य चैकियों पर हमले आरम्भ करा दिये। किंतु समय से जर्मन सहायता न मिलने से इन्हें पराजित होना पड़ा। साथ ही अंगरेजों के भय से अफगान शाह भी अंगरेजों से मिल गया। फलतः राजा साहब को अफगानिस्तान से हटना पड़ा।
इस पराजय से हताश हुए बिना राजा साहब पुनः जर्मनी जा पहुंचे। इस मध्य उन्हें रूस में हुई क्रांति ने रूस के प्रति भी आशावान किया। किंतु इस बार दोनों स्थानों से निराशा मिली। बल्कि रूस ने तो आजाद हिंद सरकार के डा. मथुरा सिंह के नेतृत्ववाले प्रतिनिधिमंडल को ही बंदी बनाकर अंगरेजों को सोंप दिया। अंगरेजों ने डा. मथुरा सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया।
अब वह अंगरेजों से लड़ रहे चीन की ओर मुड़े। तिब्बत होकर चीन पहुंचे राजा महेन्द्रप्रताप ने 1925 में चीन व अंगरेजों के मध्य हुए युद्ध में चीन सरकार का पक्ष लिया। किन्तु किसी भी प्रयास से अपने उद्देश्य में सहायता न मिलती देख अंततः वे अपनी सरकार को सबसे पहले मान्यता देनेवाले जापान जा पहुंचे।
जापान सरकार ने राजा साहब की योजना का इतने उत्साहपूर्वक स्वागत किया कि उन्होंने अपनी सरकार का मुख्यालय ही काबुल से हटाकर टोकियो में स्थापित कर लिया। यहां पूर्व से प्रयासरत सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने भी उनसे भेंट की तथा अपनी योजना से उन्हें अवगत कराया। अब दो प्रमुख क्रांतिकारी अपनी-अपनी योजनाओं को एक कर एक साथ कार्य करने लगे।
जापान में आयोजित ‘पान एशियाटिक कान्फ्रेंस’ में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेनेवाले राजा महेन्द्रप्रताप ने रासबिहारी बोस के साथ मिलकर 1939 में ‘एक्जीक्यूटिव बोर्ड आफ इंडिया टू फ्री इंडिया’ का गठन किया। इसके प्रधान राजा महेन्द्रप्रतापसिंह बनाए गये। जबकि उपप्रधान रासबिहारी बोस बने। जबलपुर निवासी आनन्द मोहन इसके महासचिव थे।
लगभग अंतिम चरण में पहुंची जापान सरकार से राजा साहब की आजाद हिंद सरकार की संधि में उस समय गतिरोध आ गया जब जापान ने राजा साहब की इस भारतीय सेना के जापानी झंडे तले युद्ध करने की शर्त रखी।
स्वाभिमानी भारत के स्वाभिमानी प्रतिनिधि राजा महेन्द्रप्रताप को यह स्वीकार न था। फलतः जापान सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
(हालांकि बाद के दिनों में 4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस के प्रयासों से कैप्टन मोहनसिंह के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज सहित इस सरकार का कार्यभार संभालनेवाले ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी राजा साहब की तरह जापानी झंडे तले अपनी सेना को युद्ध में भेजने से इंकार कर जापान को अपनी ही शर्तों पर संधि करने को विवश किया था।)
नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिंद सरकार के प्रयासों, इसे मिले जापानी सहयोग व इसके परिणामों से सभी विदित ही हैं। अप्रतिम शौर्यवाली इस सेना ने युद्ध के दौरान जो प्रतिमान स्थापित किये, उन्हें स्मरण कर आज भी गर्व की अनुभूति होती है।
दुर्भाग्यवश युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप व जापान के हिरोशिमा व नागासाकी नगरों पर परमाणु हमले से विवश जापान को समर्पण करने पर विवश होना पड़ा तथा उसके सहयोग से किये जानेवाले पराधीन भारत की इस स्वाधीन सरकार के सारे प्रयास भी वांछित सफलता न पा सके।
अगस्त 1945 में जापान सरकार के समर्पण के पश्चात राजा साहब अमेरिका के युद्धबंदी बने। इसी समय भारत में अंगरेजी सरकार ने भारतीयों की अंतरिम सरकार का गठन किया। अनेक भारतीय नेताओं की मांग तथा अंतरिम सरकार के प्रयासों से अंगरेजों ने राजा साहब को भारत आने की अनुमति दी।
14 फरवरी 1946 को अमेरिकी सेना द्वारा मुक्त किये जाने के बाद राजा साहब 9 अगस्त 1946 को पूरे 31 वर्ष 7 माह बाद राजा महेन्द्रप्रताप सिंह स्वदेश वापस लौटे। सरदार बल्लभभाई पटेल ने इनका कलकत्ता हवाई अड्डा पर स्वागत करने के लिए अपनी पुत्री मणिबेन को भेजा था।
1 जनवरी 1886 को मुरसान के राजा घनश्यामसिंह के यहां खड्गसिंह के नाम से जन्मे तथा बाद में हाथरस नरेश राजा गोविन्दसिंह की पत्नी द्वारा दत्तक ग्रहण के बाद महेन्द्रप्रताप नाम व हाथरस रियासत का उत्तराधिकार पानेवाले राजा महेन्द्रप्रताप सिंह यूं तो अपनी इस क्रांतिकारी विदेश यात्रा से पूर्व ही 24 मई 1909 में 5 गांव व दो महल दान देकर शिक्षा जगत में प्रेम महाविद्यालय जैसी संस्था का गठन करा चुके थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय को भूमिदान तथा 1911 में वृंदावन गुरूकुल को 15 हजार का दान दे क्षेत्र का शैक्षिक विकास करने का प्रयास कर चुके थे। किन्तु जापान से लौटकर तो वे पूरी तरह शिक्षा जगत हो समर्पित हो गये।
यूं 1957 व 1962 मंे वे मथुरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी निर्वाचित हुए तथा इन निर्वाचनों में पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व को भी पराजित करने में सफल रहे। किन्तु जल्द ही उनका चुनावी राजनीति से मोह भंग भी हो गया।
26 अप्रेल 1979 को ‘आर्यान् पेशवा’ विरुदधारी यह महामानव अपनी दैहिक इहलीला का समापन कर पंचतत्व में विलीन हो गया।
कृष्णप्रभाकर उपाध्याय